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एनसीपी-कांग्रेस के चक्‍कर में क्‍या डूब गई उद्धव की लुटिया, बाल ठाकरे की शिवसेना ने बेटे के राज में कैसे बदला चोला?

Youth Voice 24 by Youth Voice 24
June 27, 2022
in अंतर्राष्ट्रीय, ई-पेपर, एजुकेशन, धर्म, बिज़नेस, मनोरंजन, राजनीति, लाइफस्टाइल, स्वास्थ्य
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एनसीपी-कांग्रेस के चक्‍कर में क्‍या डूब गई उद्धव की लुटिया, बाल ठाकरे की शिवसेना ने बेटे के राज में कैसे बदला चोला?

Maharashtra Political Crisis: महाराष्‍ट्र में सत्‍ता संघर्ष जारी है। सुलह और मान-मनौव्‍वल का दौर खत्‍म हो चुका है। मुख्‍यमंत्री उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) और बागी शिवसेना विधायक एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) आर-पार की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं। इस संघर्ष में अब तक शिंदे का पलड़ा भारी रहा है। उन्‍होंने नंबर गेम में उद्धव को कहीं पीछे छोड़ दिया है। एक के बाद एक करके 42 से ज्‍यादा विधायक शिंदे खेमे में जा मिले हैं। चंद दिनों में एकनाथ शिंदे ने उद्धव के पैरों तले जमीन खिसका दी है। इसकी एक बड़ी वजह पार्टी की विचारधारा में आया बदलाव है। एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर उद्धव ने महा विकास अघाड़ी (MVA) सरकार तो बना ली। लेकिन, इसके चलते उनकी लुटिया डूब गई। बाल ठाकरे की शिवसेना बेटे के राज में बिल्‍कुल अलग चोला पहनकर खड़ी हो गई। जिस आक्रामक हिंदुत्‍व छवि के लिए पार्टी जानी जाती थी, वह उसी से दूर हो गई। इस पूरे सत्‍ता संघर्ष में शिवसेना के कार्यकर्ताओं को सबसे ज्‍यादा दिक्‍कत एनसीपी से रही है। यह और बात है कि उद्धव ठाकरे की शिवसेना उसी एनसीपी के भरोसे समाधान तलाश रही है।

बातचीत से बात नहीं बनने पर अब उद्धव खेमे के तेवर बदल गए हैं। शिवसेना कार्यकर्ताओं ने पार्टी के बागी विधायकों के घरों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। शनिवार को शिवसेना की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाई गई। इसमें एक प्रस्ताव पारित किया गया। इसके तहत महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे को बागियों के खिलाफ ऐक्‍शन लेने के लिए अधिकृत किया गया। बैठक में एक प्रस्ताव भी पारित हुआ। इसके मुताबिक, कोई अन्य राजनीतिक संगठन शिवसेना और इसके संस्थापक दिवंगत बाल ठाकरे के नाम का उपयोग नहीं कर सकता है।

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श‍िवसेना में हो चुकी है दो-फाड़
शिवसेना के ज्यादातर विधायक शिंदे के समर्थन में आ चुके हैं। वो सभी गुवाहाटी में डेरा डाले हैं। इससे उद्धव ठाकरे की महा विकास आघाड़ी सरकार संकट में आ गई है। महाराष्‍ट्र में 2019 में उद्धव की अगुवाई में महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी थी। इस गठबंधन को एनसीपी और कांग्रेस का समर्थन मिला था। हालांकि, तब से उद्धव की शिवसेना बाल ठाकरे की शिवसेना से बिल्‍कुल अलग दिखने लगी। यह शिवसेना के कार्यकर्ताओं को बिल्‍कुल रास नहीं आया।

शिवसैनिकों और पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को समस्‍या के तौर पर नहीं देखा। अलबत्‍ता, 2019 के लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में वो कांग्रेस और एनसीपी को कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देख रहे थे। गठबंधन सरकार में शिवसेना को सीएम पद मिला, लेकिन रिमोट कंट्रोल एनसीपी के हाथों में रहा। शिवसेना के व‍िधायक तमाम शिकायतें करते रहे। यह और बात है कि इन पर कुछ भी नहीं हुआ।

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पिता और बेटे की शिवसेना में अंतर
2009 तक पिक्‍चर बिल्‍कुल अलग थी। राज्‍य में शिवसेना बीजेपी के ‘बड़े भाई’ की भूमिका में थी। हालांकि, इसके बाद बीजेपी ड्राइविंग सीट पर आ गई। शिवसेना के संस्‍थापक बाल ठाकरे का 2012 में निधन हुआ। वहीं, 2014 में नरेंद्र मोदी युग की शुरुआत हुई। इसने शिवसेना को बहुत पीछे कर दिया। बीजेपी-शिवसेना का पहली बार गठबंधन 1989 में हुआ था। इसका पूरा श्रेय बीजेपी नेता प्रमोद महाजन को जाता है। वह गठबंधन का प्रस्ताव लेकर बाल ठाकरे के पास पहुंचे थे। तब ठाकरे ने कागज पर लिखकर दिया था कि शिवसेना 200 सीटों पर लड़ेगी। बाकी सीटों पर बीजेपी लड़ ले। महाराष्ट्र में 288 विधानसभा सीटें हैं। विचारधारा से दोनों पार्टियां काफी मिलती-जुलती थीं। बीजेपी-शिवसेना के रिश्ते को हमेशा ऐसे पति-पत्नी की तरह देखा गया, जो प्यार से साथ रह नहीं सकते। लेकिन, एक-दूसरे से अलग भी नहीं रह सकते। बाल ठाकरे के जीवित रहने तक विचारधारा के स्‍तर पर दोनों पार्टियां एक सरीखी थीं।

कुर्सी पर बैठते ही बेटे ने बदला स्‍टैंड
एक जमाना था जब उद्धव ठाकरे सोनिया गांधी को इंपोर्टेड नेता बताया करते थे। उन्‍हें इटली लौट जाने की सलाह देते थे। उद्धव के बेटे आद‍ित्‍य कांग्रेस-एनसीपी के नेताओं के चेहरों वाले दशानन का पुतला फूंकने की तस्‍वीरें शेयर करते थे। कांग्रेस को मूर्ख बनाने वाली और NCP को नेशनल करप्शन पार्टी बताते थे। हिंदुत्‍व के मुद्दे पर भी वह आक्रामक रहती थी। हालांकि, 2019 में उद्धव के सीएम की कुर्सी पर बैठने के बाद सब कुछ बदल गया। वह हिंदुत्‍व के एजेंडे पर कमजोर दिखने लगे। मस्जिदों से लाउडस्‍पीकर उतारने का मसला हो या हनुमान चालीसा विवाद, उनका रुख पुरानी वाली शिवसेना से बिल्‍कुल अलग रहा। और तो और उन्‍होंने नेहरू-गांधी राज की तारीफ करनी शुरू कर दी। इसने शिवसेना के कार्यकर्ताओं को निराश किया। उद्धव के स्‍टैंड से उनकी नाखुशी बढ़ती गई। फिर जब बीमारी और अन्‍य स्‍वास्‍थ्‍य कारणों से उद्धव ने मिलना-जुलना कम कर दिया तो कनेक्‍शन पूरी तरह टूट गया।

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